(इस कहानी में सच उतना ही है जितना कि झूठ। मेरे पास उनको अलगाने वाली छलनी नहीं थी। इसलिए यह कहानी आपको झूठी भी लग सकती है और सच्ची भी। पर जितनी झूठी आपको लगेगी , उतनी ही सच्ची हो सकती है और जितनी सच्ची लगेगी , उतनी ही झूठी भी।)
यह तब की बात है, जब इनसान और भूतों की दुनिया में इतनी दूरी नहीं थी। मतलब इनसान घर में रहता था और उसी के घर-आँगन के किनारे लगे किसी पेड़ में कोई भूत या चुड़ैल डेरा डाले रहती थी। दिन में घर जागता था और रात में पेड़। घर और पेड़ इस बात को तो जानते ही थे, शायद उस पर रहनेवाले भी इससे परिचित थे। लेकिन वे एक दूसरे की जिंदगी में दखल नहीं देते थे। भूत दिन का सम्मान करते थे और इनसान रात का। इनसानों को इस बात का आभास तो था। इसीलिए एक अनकहा-सा समझौता हो रखा था। सही-साँझ सारे बाहरी काम निबटा दिए जाते। बाहर आहटों की दुनिया आबाद हो इससे पहले लोग नींद की दुनिया में गाफिल हो जाते या अपना दरवाजा उठंगा लिया करते। रात-बेरात गर पेशाब करना हो तो ऐसे निकलते मानो नींद में हो। इसे बस ऐसी ही किसी बस्ती, कस्बे, गाँव या टोले की कहानी मान लीजिए। इस कस्बे में जितने घर थे, उससे ज्यादा वृक्ष थे। तरह-तरह के पेड़। पर कुछेक पेड़ों के बारे में यह हल्ला था कि उसमें कोई ना कोई छोटा-मोटा भूत या चुड़ैल रहती है। हालाँकि भूत इनसानों की दुनिया में कोई दखल नहीं देते थे। भूतों का अपना विधान था, जिसके प्रति हर भूत कटिबद्ध था। उनमें से एक था कि बेवजह इनसानों के फटे में टाँग नहीं अड़ाना। गर ऐसी नौबत कभी आ जाए तो भूत की पेशी उनके कचहरी में होती थी और आरोपी भूत को बाकायदा यह साबित करना होता था कि क्यों उस स्थिति को टाला नहीं जा सकता था। दूसरा नियम था कि कोई भूत अपने जीवित रिश्तेदारों के मोहल्ले के आस-पास नहीं रहेगा। वरना मरने के बाद भी दुख से मुक्ति संभव नहीं है। बाकी नियम यथाप्रसंग बताए जाएँगे। इनसान और भूतों का यह शांतिपूर्ण साहचर्य चलता रहता, अगर वह घटना नहीं घटी होती...।
लोग बताते हैं कि आजादी के दस-पंद्रह साल बाद जाड़े की किसी दुपहरिया छोटानागपुर के एक कस्बे में भालू का खेल दिखानेवाला मदारी उस कस्बे में दाखिल हुआ था। भालू का खेल दिखाने के बाद तमाशबीन भीड़ के गोल घेरे में उसकी पत्नी थाली लेकर पैसे दो पैसे की आस में चक्कर लगाने लगती थी। मालूम नहीं भालू के खेल के कारण या उसके रूप के कारण थाली में पाँच, दस, बीस, पच्चीस पैसों की बरसात अक्सर हो जाया करती। इसलिए जिस नई जगह पर वे जाते, वहाँ दो-तीन दिन डेरा-डंडा जरूर डाल दिया करते और साप्ताहिक हाट-बाजारों में खेल दिखा कर और दो पैसा ज्यादा कमा कर आगे बढ़ जाया करते। शायद इस दफा भालू के खेल से ज्यादा उसके रूप की खबर आग की तरह कस्बे में फैली थी। इस कस्बे की बसावट कुछ ऐसी थी कि जात-गोतिया के दो-चार घरों से उसकी दिशाएँ आबाद थीं। कस्बे के बीच से होकर एक सड़क गुजरती थी। उस सड़क के आमने-सामने ब्राह्मण और ठाकुरों के घर थे। बाकी राजपूतों के पीछे कहार, कुम्हार, सोनार, कोयरी, घाँसी और कोल्ह के टोले-मुहल्ले आबाद थे। तो ब्राह्मणों के पीछे यादव, बनिया, कुरमी और तेल तथा चमड़े का काम करनेवालों के टोले थे। शाम को कस्बे की चौक पर मदारी की पत्नी की रूप चर्चा ठाकुर के कान में भी पड़ी। अगले दिन उन्होंने अपने चमचे-बेलचों से मदारी को खबर भिजवाई कि वह भालू लेकर उनके दरवाजे पर आ जाए। मदारी उस वक्त साप्ताहिक 'बुध बाजार' की ओर बस निकलने को ही था, सो उसने कहा कि वह अगले दिन ठाकुर के दरवाजे पर आएगा। ठाकुर ने इसे अपनी शान के खिलाफ समझा। और अपनी दोनाली टाँग कर पैदल ही बाजार की तरफ निकल पड़े। दोनाली उनकी जनेऊ थी। हमेशा धारण किए रहते थे। चाँदनी रात में शिकार के खासे शौकीन थे। उनके शिकार और निशाने की ख्याति आस-पास के इलाके में दूर-दूर तक थी। जब अपने लग्गु-भग्गु के साथ चौक पहुँचे तो मालूम हुआ कि मदारी भालू समेत हाट बाजार के लिए निकल गया है। अब आगे पैदल जाना शान के खिलाफ था। तो वहीं चौक की पान की दुकान पर एक बीड़ा खाने और तीन बंधवाने के बाद मकसूद मियाँ को ताँगे के लिए खबर भिजवाई गई। कोई एकाध घंटे बाद मकसूद मियाँ ताँगे के साथ हाजिर थे। फिर क्या था, ताँगा चला 'बुध बाजार' की ओर। ठाकुर जब 'बुध बाजार' पहुँचे तो उन्हें अलग से मदारी को खोजने की दरकार नहीं पड़ी। भीड़ का एक बड़ा-सा गोला दूर से ही दिख रहा था। ठाकुर अपनी दुलकी चाल में खरामा-खरामा बढ़े। भीड़ के पास पहुँचकर उन्होंने खँखार कर एक बार खाँसा। उनकी खाँसी की आवाज से भीड़ ने उनके लिए रास्ता छोड़ दिया। मदारी अपने मौज में डमरू बजा-बजा कर भालू को गुलाटी मरवा रहा था। मदारी कुछ समझ पाता इससे पहले दोनाली उसकी छाती पर थी। और इससे पहले की घोड़ा दबता, मदारी की पत्नी ऐन सामने थी। ठाकुर भक्क। हाथ ढीले पड़ गए। दोनाली जमीन सूँघने लगी और ठाकुर आँख बंद करके उस हवा को। लेकिन इस बार आँख खुली तो बंदूक जिस स्लो मोशन में नीचे गई थी उससे दुगुनि गति से ऊपर आई और फिर गोली चल गई धायँ... और फिर अगले ही पल एक और धायँ। आधी भीड़ तो दोनाली जब पहली मर्तबा तनी थी तभी सरपट हो गई थी, और गोली के बाद तो किसी के रुकने का सवाल ही नहीं था। दो-तीन मिनट के भीतर पूरा बाजार सन सनानन सायँ सायँ हो गया था।
प्रत्यक्षदर्शियों में से एक ने उस दिन गाँव में जाकर कहा था कि भालू ऐसे भाग रहा था मानो उसके एक अंग विशेष में हनुमान कूद रहा हो। दरअसल ठाकुर की दोनों गोलियाँ भालू के कान के दोनों सिरों को छूती निकल गई थीं। और भालू रस्सी छुड़ा-तुड़ा के भाग खड़ा हुआ था। बाजार से आधे किलोमीटर की दूरी पर जंगल का इलाका शुरू होता था, भालू दौड़ता हुआ उसमें दाखिल हो गया था और उसके पीछे दौड़ता हुआ मदारी भी। मदारी कोई दो-तीन घंटे की मशक्कत के बाद भालू को लिए वापस लौटा तो उसकी पत्नी समेत पूरा बाजार गायब था। उसे सूझ नहीं रहा था कि वह अब क्या करे? किससे पूछे? किसको बताए? उसके तमाशे के साजो-समान मसलन डमरू, सीटी, टोपी, लाठी और बाकी अगड़म-बगड़म इधर-उधर बिखरे पड़े थे, जिन्हें समेटे बगैर वो पगलाया हुआ-सा इधर उधर ताक रहा था। भालू अलग बौखलाया हुआ था। मदारी से न रोते बन रह था, ना चिल्लाते। रात गहराने से पहले वह अपनी गठरी और भालू के साथ कस्बे में वापस लौटा। चारों ओर सन्नाटा पसरा था। खपरैल मकानों के दरवाजों के भीतर ढिबरी की मद्धिम-सी रोशनी मौजूद थी, जिसका पता भी पास जाने पर मालूम होता था। उसे ना तो ठाकुर का घर मालूम था और ना ही उसका पता बतानेवाला कोई उस वक्त मौजूद था। रात खत्म होने का नाम नहीं लेती थी। भालू भूख से अलग हिकर रहा था। बीच-बीच में मदारी का रोना भी फूट पड़ता था। एकदम भोर में ही वह उस कस्बे की इकलौती चाय-दालमोट की दुकान पर पहले-पहल पहुँचा और लोगों से अपना दुखड़ा रो-रोकर सुनाने लगा। ठाकुर के दरवाजे तो कोई ले जाने को तैयार नहीं हुआ, पर छिप-छिपाके लोगों ने घर का रास्ता बता दिया। ठाकुर के दरवाजे कोई सुनवाई नहीं हुई। वह रोता रहा। चिल्लाता रहा। अगले तीन दिन तक वह पूरे कस्बे में घूम-घूम कर दरवाजे-दरवाजे बिसूरता रहा। पर उसकी पत्नी की कोई खोज-खबर नहीं मिली। भालू का पेट भरने की खातिर उसने दो एक तमाशे भी किए, पर बमुश्किल खाने लायक पैसे जुटा सका। फिर एक सुबह नदी किनारे उसकी पत्नी की लाश मिली। लोग बताते हैं भालू को छोड़ कर अपनी पत्नी की लाश कांधे में लिए वह उस कस्बे से चला गया। पर उसके बाद कस्बे में कुछ ऐसी चीजें घटने लगीं जो पहले कभी हुईं नहीं थी। शाम को दिशा-मैदान से लौटते समय कइयों के पिछवाड़े में किसी जानवर ने पंजा मार दिया था। रात में किसी के रोने की आवाज सुनाई देने लगती। यों तो ऐसे भी साढ़े सात बजते-बजते यह कस्बा सो जाता था, पर अब तो छह बजते-बजते साँप सूँघ जाता। एक दिन ठाकुर के तालाब की सारी मछलियाँ मरी हुईं, उपली मिलीं। आम के पाँच सात पेड़ एक साथ मुर्झा गए। ठाकुर की दुधारू गायें अचानक से बिसूख गईं। शाम होते ही बड़े-बड़े चमगादड़ ना जाने कहाँ से उड़ने का सिलसिला शुरू करते, जो देर रात तक जारी रहता। शाम में सियार कुछ ज्यादा जोर से हुआँ-हुआँ करने लगते। रात में कबूतर गूटरगूँ करने लगते, पर आवाज ऐसी आती मानो कोई किसी का गला घोंट रहा हो। एक के बाद एक अपशकुनों ने पारी बाँध ली थी। लोग जान रहे थे कि कुछ अनिष्ट होनेवाला है। पर कब, कैसे इसकी खबर किसी को नहीं थी। बस, एक अंदेशा था कि कुछ अघटित होने वाला है। ठाकुर के दरबारियों ने जब इस कानाफूसी के बाबत उनको बताया तो ठाकुर ने पान चुभलाते हुए कहा तालाब में जहर किसी ने ईर्ष्यावश डलवाया है, आम के पेड़ पर किसी ने हींग ठुकवा दिया है, गायों के बारे में उन्होंने कहा कि फिर से गाभिन हैं। चमगादड़ों के बारे में कहा कि पास के लीची और अमरूद के बागानों की ओर उड़ान भरते हैं।
इधर भूतों की दुनिया में भी इसे लेकर बहस का बाजार गरम था कि आखिर होगा क्या? भूतों ने पंचायत बुलाई, जिसमें सलाह-मशविरे के बाद यह तय हुआ कि उसे ही बुलाकर पूछा जाए कि वह क्या चाहती है? अगले दिन उसकी पेशी हुई। उसका एक शब्द का जवाब था - बदला। भूतों ने कहा बदला इनसानों की फितरत है, हम भूत हैं। उसने कहा कि मैं बदला लिए बगैर नहीं छोड़ूँगी। भूतों के सरपंच ने कहा कि यह काम तुम्हारे मरद को करना चाहिए था। उससे नहीं सपर रहा था, तो थाना-कचहरी करता। इस पर उसने बिफरते हुए कहा कि दो दिन मेरा मरद टीओपी गया। लेकिन उन हरामी के जनों ने पहले भालू का खेल दिखाने की फरमाईश की। फिर खेल देखकर, उसे भगा दिया। इसलिए थाना-कचहरी पर तो भरोसे का सवाल ही नहीं है। भूतों ने आखिर में कहा कि बस इतना करो कि जो करना हो, इस कस्बे की सीमा रेखा के बाहर करना। इस कस्बे में अब तक हम भूतों के हाथ खून से नहीं रँगे हैं। उसने कहा ठीक है। और फिर घटनाएँ घटनी बंद हो गईं। कस्बे का जीवन पटरी पर लौट आया।
लोग धीरे-धीरे इन सबको भूल कर अपने रोजमर्रे के जीवन में रँग गए थे। मंडा का परब सामने था। जागरण, फूलकुंदी के बाद झूलन के चरणों से गुजरकर यह पर्व अपना चक्र पूरा करता था। इसे पूरा करने का जो व्रत लेते थे, वह भोक्ता कहलाते थे। फूलकुंदी और झूलन इसका प्रमुख आकर्षण हुआ करता था। फूलकुंदी रात को हुआ करता था, जिसमें दिन में भोक्ताओं के नहाने का सिलसिला शुरू होता और वे गाँव की हर नदी, पोखर के लिए प्रमुख शिव मंदिर से नाचते-गाते हुए निकलते और नहा कर फिर वहीं लौटते। कई बार इसमें देर रात हो जाया करती। अंतिम स्नान के बाद आग की एक चटाई सी बिछा दी जाती, जिसमें पाँच-सात बार नंगे पैर उन भोक्ताओं को चलना होता। इसे देखने कस्बे के आस-पास से भी भारी भीड़ जुटा करती। एक छोटा-मोटा मेला ही लग जाया करता। ठाकुर और गाँव के पुरोहित उसमें मुख्य अतिथि होते। ऐसी ही फूलकुंदी से पहले जब गाँव और कस्बे के गणमान्य लोग बैठे थे। किसी ने ठाकुर से कहा कि "का ठाकुर साहेब! हिने बहुत दिन से राउरे कोनो शिकार कर न्योता नइ देवे लाइग ही।" (क्या ठाकुर साहब इधर बहुत दिनों से आपने शिकार का कोई निमंत्रण नहीं दिया)। ठाकुर ने कहा "ऐहे पूर्णिमा के चलू बसारगढ़।" (इसी पूर्णिमा को चलिए बसारगढ़)। और एक स्वर से यह तय हो गया कि इस पूर्णिमा को बादुल, क्वात और डाहुक का शिकार किया जाएगा। जब यह सब तय हुआ ठीक उसी वक्त पहान मांदर और नगाड़ों के 'डीडीम डीडीम डीडीम' के साथ दाखिल हुआ। सूप से हूँक कर आग को हवा दी गई। उस आग की आँच में गाँव भर के चेहरे दमकने लगे थे, लेकिन एक रक्ताभ आभा केवल ठाकुर के चेहरे पर दैदीप्यमान थी। फिर पल भर में आग की बिछी कालीन को अपने पैरों से धाँग कर भोक्ताओं ने तांडव का दृश्य पैदा कर दिया। 'बोले शिवामणि महेश' के जयकारों से दिगंत थरथरा रहा था।
और फिर पूरणमासी की वह रात भी आखिरकार आ ही गई। ठाकुर साहब ने मकसूद मियाँ को ताँगा समेत बुला रखा था। छेदी सिंह अपने धांगर बलेसर के साथ मौजूद थे। अपने बंदूकों के साथ दोनों सवार हुए। बलेसर मकसूद के साथ आगे जाकर बैठ गया। अभी ताँगा ने बस पुल ही पार किया था कि एक बिल्ली रास्ता काट गई। मकसूद ने झटके से ताँगा रोक दिया। ठाकुर ने कहा कि अब रात में तो कोई और पार होने से रहा, कब तक खड़ा रहेंगे। बलेसर कूद कर उतरा और खुद रास्ता पार कर के खड़ा हो गया। फिर ताँगा आगे बढ़ा और बलेसर आकर बैठ गया। बाँस के जंगल में उतरने से पहले ताँगा आम के बगीचे में बाँध दिया गया। और वहीं से लोग पैदल निकल पड़े। चाँदनी पूरे शबाब पर थी। इतनी रोशनी थी कि इकन्नी गिर जाए तो ढूँढ़ी जा सकती थी। बादुलों का इलाका अलग था। वे जहाँ लटकते थे, वहाँ सौ दो सौ पेड़ पर वही टँगे रहते। पर उन्हें मारना सबसे आसान तब होता था, जब वे उड़ कर वापस बैठने की फिराक में होते थे। छेदी सिंह को बादुल का मांस कुछ ज्यादा पसंद था, सो उन्होंने ठाकुर साहब से इजाजत ली और जंगल में भीतर उतर गए। ठाकुर ने दूसरी राह पकड़ी जो जंगल के पश्चिमी छोर पर स्थित पोखर की ओर जाती थी। पोखर के पास पहुँच कर उन्होंने अपनी दोनाली में गोलियाँ भरीं। लोग बताते हैं कि पंछी-परेवा को मारने के लिए वह खुद ही छर्रों को कारतूस में भर कर तैयार कर लिया करते थे। इससे एक फायर में पच्चीस-पचास कबूतर और बगुले तो पल भर में घायल होकर छितराए रहते थे। पोखर के पास अभी वो शिकार तलाश ही रहे थे कि डाहुकों का एक जोड़ा, उन्हें पास ही थेथर के पौधों से निकलकर दूसरी ओर जाता दिखा। इससे पहले की वह निशाना लगाते तीन-चार क्वात एक साथ उनके सिर के ऊपर बाँस की कलगी पर आकर बैठ गए। अब वे कुछ तय कर पाते, तब तक डाहुकों का जोड़ा पानी में दूर जा चुका था। उन्होंने मकसूद से कहा कि जाओ उधर से खेदो, हम इधर ही से टेक लगाते हैं। दस-बारह मिनट बाद मकसूद ने उधर जाकर थोड़ी हलचल की तो चार-छह डाहुक निकल आए। फिर मकसूद ने ढेला मार-मार के उनको दूसरी तरफ बैठे ठाकुर की ओर मोड़ दिया। ठाकुर इधर तैयार थे। फिर थोड़ी देर बाद गोली चली धायँ और फिर एक और धायँ। पहली पोखर में तैरते डाहुकों पर चली और दूसरी उसकी आवाज से उड़ते क्वातों पर। डाहुकों का तो पता नहीं पर आठ-दस क्वात उड़ते हुए फड़फड़ा कर गिरे। उनकी फड़फड़ाहट बहुत देर तक हवा में घुली रही। मकसूद पाँच-सात मिनट में भागा-भागा आया। ठाकुर ने मकसूद से कहा कि पहले पोखर में जाकर डाहुकों को देखो, क्वातों को बाद में भी उठाया जा सकता है। मकसूद पानी में उतरा अभी कमर तक पानी में गया ही था कि हाथ भर की दूरी पर एक डाहुक पानी पर डैना फड़फड़ाता दिखा। लेकिन ज्यों ही मकसूद ने अगला कदम पानी में बढ़ाया कमर का पानी छाती तक पहुँच गया। और घायल डाहुक बित्ता भर की दूरी पर रह गया। अगला कदम बढ़ाते ही पानी नाक तक पहुँच गया। गनीमत इतनी की डाहुक मकसूद की पकड़ में आ गया था। पर यह क्या? उसके पैर कमल की नाल और पानीफल सिंघाड़ा की लताओं में इस कदर उलझ गए थे कि मुड़ना मुश्किल था। ऐन उसी वक्त ठाकुर की कान में कोई फुसफुसाया 'भालू का नाच नहीं देखोगे साहेब।' ठाकुर मुड़े तो मदारी ऐन सामने खड़ा था। अब ठाकुर के पिछवाड़े हनुमान कूद रहा था। दहशत में दोनाली हाथ से छूट चुकी थी। मदारी ने डमरू बजाना शुरू किया। पास ही बाँस के झुरमुट से भालू निकल आया। अँजोरिया रात में भालू का खेल आरंभ हुआ। 'डिम-डिम डिम-डिम, डमक-डमक, डम'। कहते हैं मकसूद ने उस रात भालू का नाच दम साध कर पोखर में खड़े-खड़े देखा था। और पूरे वक्त अल्ला-ताला से सलामती की दुआएँ माँगता रहा था। जब भालू का तमाशा खत्म हुआ, तब तक ठाकुर की साँस धौंकनी की तरह चलने लगी थी। थोड़ी देर पहले पंखों की जो फड़फड़ाहट हवा में थी, अब उसकी जगह नथुनों से फुफकारती-सी निकलती साँसों की आवाज थी। भालू का तमाशा खत्म होते-होते ठाकुर पसीने से तरबतर हो चुके थे। खेल जब खत्म हुआ तो मदारी की पत्नी सामने थी। अलमुनियम की टेढ़ी-सी थाली हाथ में लिए हुए ठाकुर के कान में बोली कि 'पापी पेट की खातिर पइसा-दू पइसा दे दो साहेब। हमारी खातिर नहीं तो इस जानवर की पेट की खातिर।' ठाकुर की गरदन वैसे ही एक ओर साढ़े तेईस डिग्री झुक गई थी, जैसे पृथ्वी अपने अक्षांश पर झुकी है।
किसी तरह टाँग-टूँग के ठाकुर को भोर में घर लाया गया। घर में कोहराम मच गया। किसी को समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर ऐसा कैसे हो गया? कहीं एक खरोंच तक नहीं बस आँखें ऐसी फटी की फटी रह गईं थीं कि बंद होने का नाम नहीं ले रहीं थीं। मकसूद को हिम्मत नहीं हो रही थी, गई रात की आँखों देखी बताने की। उसने बताया कि वह पानी में उतरा था और जब निकल कर देखा तो ठाकुर वहीं गिरे पड़े थे। सुबह के नौ बजते-बजते ठाकुर की मौत की खबर पूरे कस्बे में फैल गई थी। दोपहर तक शवयात्रा की पूरी तैयारी कर ली गई और शाम तक ठाकुर फूँक दिए गए। सब मकसूद की ओर देख रहे थे और मकसूद कहीं और देख रहा था। पर मुसीबत यहीं खत्म नहीं हुई थी। बुतरू पंडित ने पतरा देख कर कहा ठाकुर गाँव को पंचक में डाल गए हैं। पाँच लाशें और उठेंगी। किसकी मालूम नहीं। यह जान कर कुछ लोग तो कपाल क्रिया होने से पहले कटने की फिराक में थे, लेकिन लगा कि कहीं ठाकुर बुरा मान गया तो साथ न ले जाए।
शाम को ठाकुर का दाह संस्कार करके जब सब लौटे तो सबसे पीछे ठाकुर की आत्मा भी लग गई। पर ठाकुर की आत्मा को मंदिर के पहले दो प्रेतों ने रोक लिया और कहा कि "इधर कहाँ?" ठाकुर ने कहा कि "घर", तो उसे हिदायत दी गई कि "रात में जब तुम्हारे परिवार वाले खाने के लिए तुम्हें बुलाएँगे, तब मन भर देख लेना सबको। कल से दसवाँ-बारहवाँ या तेरहवाँ तक तुम्हें मरघट वाले पीपल पर रहना होगा।" ठाकुर की आत्मा अपनी उदासी या तंद्रा से चौंक कर बाहर आती हुई बोली - "मतलब।" दोनों प्रेतों ने एक दूसरे को देखा फिर ठाकुर को देख कर बोले - "क्या मतलब?"
"मतलब कि यह दसवाँ, बारहवाँ या तेरहवाँ तक मरघट के पीपल पर रहने का मतलब?"
"कौन जात हो?"
"ठाकुर हैं।"
"नउवा?"
"नहीं, क्षत्रिय हैं, राजपूत हैं।"
"तो ठीक है, अब तुम्हारे घर वाले कैसे बाकी विधान करेंगे? इसकी जानकारी तो हमको नहीं है, ना भाई। उ गरुड़ पुराण के हिसाब से करेंगे कि मत्स्य पुराण से या विष्णु धर्म सूत्र से? या कौनो और से? जोल्हा या क्रिस्तान वाला मामला नहीं है ना! छिहत्तर गो शास्त्र और बहत्तर गो विधान है। कोई दस दिन में निबटा देता है, कोई बारह और कोई तेरह। तो जब श्राद्ध कर्म ब्राह्मण भोज सब ना हो जाए, तब तक वहीं रहना होगा। पाथेय श्राद्ध या पिंड पड़े तो रात में आ जाना। उसके बाद अगर घरवालों ने श्राद्ध-तर्पण सब कर दिया तो फिर मुक्ति।" रात में मन भर अपने घर-परिवार को देखने के बाद ठाकुर भोर में मसान वाले पीपल के पास पहुँच गए।
अगली सुबह पीपल के पेड़ पर ठाकुर को एक चनावाला पहले से बैठा मिला। ठाकुर को देख कर उसने मोटी डाल छोड़ दी। पूरे इज्जत से कहा कि "आईं बैठीं एहिजा"। ठाकुर ने एक नजर चनावाले पर डाली और वहीं पीपल के चबूतरे पर बैठ गए। दोपहर तक वे चुपचाप मुड़ी गोत कर बैठे रहे। फिर सिर ऊपर करके पूछा कि "आयँ हो! तू त काँवर लेके दू चार बरिस पहिले बाबाधाम गइल रहला नू। ओकर बाद त तहार कोउनो खोज खबर केकरो ना मिलल और तू एहिजा बइठल बाड़ा।" इस पर चनावाले ने जवाब दिया कि "का बताईं। काँवर लेके चहुँप त गईनी सुलतानगंज से बाबाधाम लेकिन सोमवारी के भीड़ में कुचा गईंनी। जान-प्राण ओहिजे भीतरे बाबा के दरबार में निकल गइल। पंडवन सब हल्ला करलसन कि बेहोश हो गया है। ओकरा बाद सब उठा के ईलाज के नाम पर सदर अस्पताल रेफर कर देहलसन। उहाँ तो कोई चिन्ह परिचित के आदमी भेटाइल ना, त उठा के दू दिन बाद फिंकवा दिहला सन। अब दाह-संस्कार त होखल ना। एहिसे मुक्ति नइखे। बइठ के काटत बानी।" तभी ऊपर के खोड़र से आवाज आई कि "बुढ़ऊ शिवजी के फेरा में भीतरामपुर चल गइलन।" ठाकुर ने देखा तो तुरिया नाम का उस जमाने का सबसे रद्दी पियक्कड़ पीपल की डाल की खोह से मूड़ी निकाले हँस रहा था। चनावाले ने तुरिया की मौसी का सादर स्मरण किया। इस पर तुरिया फिस्स-सी हँसी हँसता हुआ नीचे उतर आया। बोला "का चच्चा चना-उना देभी चखना में कि सूखले-सूखले गटके ला पड़तऊ।" इस बार चनावाले ने उसकी मौसी के साथ माँ को भी सप्रेम याद किया। तुरिया ने शर्ट की कॉलर को ऊपर चढ़ाया और दारू की भट्ठी की ओर चल पड़ा। उन दिनों मसालेदार और अंग्रेजी का चलन कस्बे में नहीं था। पचास और सत्तर जैसे ठर्रे बिका करते थे या हड़िया और चुलईया। बस ठर्रे की महक मन भर सूँघ कर वह डोलता हुआ वापस लौट आता था। लेकिन वापसी में वह खबरों की पूरी झोली भर कर लौटता। श्मशान वाले पीपल पर भी उसने अपना डेरा-डंडा इसलिए डाल रखा था कि इससे उसको पता चल जाता था कि भूतों के कुनबे आज कौन नया-नया जुड़ा है। फिर वह उसकी स्टोरी कवर कर लिया करता। मतलब आप उसे भूतों का संवाददाता मान सकते हैं। इस बार भी जब लौटा तो उसके पास मस्त कहानी थी। गाँव के कोयरी टोला में बारात आई थी, जिसका जनवासा गाँव के इकलौते प्राथमिक विद्यालय में दिया गया था। दूल्हे के बाप का साँझ होते-होते नस टानने लगता था। अब गाँव में किसी से पूछने पर बतकही का खतरा था, सो चील-कौआ जैसा एगो साथी के संग गली-कूचा में मँडरा रहे थे। तभी गली के आखिरी छोर पर उनको उम्मीद की किरण दिखी। वहाँ एक पियक्कड़ चढ़ा के ढनमनाता चला आ रहा था। उससे पूछा कि "कहाँ भेटायेगा?" मालूम हुआ कि आगे करंज पेड़ के नीचे गहनू के पास मिलेगा। दो बोतल चुलईया लिया गया और तय हुआ कि दरवाजे पर बारात लगाने के बाद मार के सुत रहल जाएगा। वहीं स्कूल के पीछे पुटुस की झाड़ियाँ थीं, जिस ओर बच्चे कभी-कभी पेशाब के लिए जाया करते थे। तो दोनों चुलइया की बोतलें वहीं छिपा दी गईं। पर दूल्हे के मामा का पेट गड़बड़ था, सो वह शाम के इंतजार में दबाव को दबाए बैठा था। पानी की तो क्या व्यवस्था थी। मामा ने सोचा सूखी घास-पात से पोंछ कर ही काम चला लेंगे। लेकिन जब छिपते-छिपाते झाड़ी के भीतर घुसे तो देखा कि दो बोतल पानी भर कर रखा हुआ है, तो निपटान के बाद उसी से पिछवाड़ा धो लिया। हाथ में थोड़ी बू रह गई थी, लेकिन वह बदबू कम से कम नहीं थी। बारात निकलने से पहले मामा फिर एक बार हलका होने पहुँचे और दूसरा बोतल भी साफ कर दिया। इसके बाद मामा बारात में शामिल हो गया। इधर बारात दरवाजे लगा कर दूल्हे का बाप वापस झाड़ियों के पास आया तो वहाँ बोतलें तो थीं, लेकिन एकदम ढनढन। दूल्हे का बाप भारी टेंशन में कि "साला! अब इ का हो गया?" गया अपने संगी के पास और बोला कि "गजब आदमी हो यार। अकेले दूनों साफ कर दिए।" पहले तो उसे बात समझ में नहीं आई। लेकिन जब समझ में आई तो वह अपने बेटा-बेटी की किरिया खाने लगा, अपना मुँह सुँघाने लगा। फिर दोनों टार्च लेकर झाड़ियों में गए। दोनों बोतल वहीं झाड़ियों के पास औंधे मुँह पड़े थे। बोले 'गजब गाँव है, साला यहाँ भी कोई हाथ साफ कर गया।'
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दो दिन से बैठे-बैठे ठाकुर की आत्मा अकड़ गई थी। जिंदा थे, तो हर रोज सुबह एक घंटे मालिश कराया करते थे। फिर नहा कर धोती-कुरता डाल कर निकलने की आदत थी। मालिश की तबीयत हो रही थी। भूतों के मन की बात एक दूसरे से छिपी नहीं रहती है। मामला पारदर्शी होता है। सो तुरिया ने ऊपर वाली डाल से दतुवन करते हुए कहा कि "चलिए मालिक।" ठाकुर ने पूछा कहाँ? तुरिया ने बिलकुल देवानंद की तरह जवाब दिया, "वहीं जहाँ कोई आता-जाता नहीं।" ठाकुर ने कहा कि अब दिन-दुपहरिया मेरे कस्बे के भीतर जाने पर रोक है। तुरिया ने कहा कि नदी के किनारे-किनारे चलते हैं। गाँव के मुहाने पर पुटकल का एक पेड़ है, फुचफुचिया नउआ वहाँ रहता है। नदी के आरा-आरा चलते हुए दोनों पहुँचे पुटकल के पास। तुरिया ने फुचफुचिया को आवाज लगाई। फुचफुचिया ने ठाकुर को देखा तो कूद कर उतरा और हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया। तुरिया ने कहा कि "मालिक का देह माने आत्मा थोड़ा टटा रहा है, तनी चटका दो।" फुचफुचिया ने ठाकुर को धूप में लेटने को कहा। फिर बातों-बातों में धीरे से यह भी खोंस दिया कि "मालिक गाँव से दूर इहाँ इसलिए आए थे कि मरने के बाद भी उहाँ चैन नहीं था। रोजे कोई नया कट का बाल बनवाने चला आता था। सोचे थे कि मरने के बाद मुक्ति मिल जाएगी, लेकिन इहाँ भी वही रगड़-घस लगा हुआ था। सो आके यहाँ सीमांत पर टिक गए। यहाँ बहुत शांति है। बगल के सेमल पर छुनुआ चुड़ैल रहती है। उसका 'टेरर' है। कोई दिन में भी इधर नहीं आता है। हालाँकि बेचारी झूट्ठे बदनाम है, दिल की बड़ी नेक है। लेकिन एक हादसे ने उसका पूरा 'रेपुटेशन' खराब कर दिया। आपको तो यादे होगा उ कांड।" ठाकुर ने पूछा "कौन?" तो नउआ बोला "वही पोतनी माटी वाला।" ठाकुर बोले "हाँ, कुल सात औरतें मरीं थीं ना?" फुचफुचिया बोला "हाँ। लेकिन छुनुआ का नाम लोगों ने झूट्ठे जोड़ दिया। औरतें लीपने के लिए पोतनी माटी ले जाया करती थीं। इससे वहाँ खोह जैसा बन गया था। उस दिन भी जब दस औरतें वहाँ खोद रहीं थीं, तो छुनुआ उनको मना करने गईं थी। लेकिन किसी ने उसकी बात नहीं मानी और ऊपर से माटी धँस गया। सात दब के मर गईं थीं, जो बच गईं थीं, उसी में से किसी ने छुनुआ का नाम लगा दिया। बेचारी उस दिन से औरतों का मुँह देखना नहीं चाहती है।" अभी मालिश और बतरस की दुकान जमी ही थी कि सामने से बोखोरी यादव और कोयला पांडे का बेटा आते हुए दिखा। फुचफुचिया ने कहा कि "इधर इ लोग नया आना शुरू किए हैं। बोखोरी का बेटवा खुनखुनवा तो पूरा हरामी हो गया है। कोयला पांडे का बेटवा टेनिया भी उसके संगे रह कर सहक रहा है। इधर दस दिन से डेली का ड्रामा हो गया है। कांटी, छर्रा, नट, बोल्ट, सुतली लेके बाँधते रहता है। बोलता था कि बम बाँधना सीख रहे हैं। हम भी मजाक बूझे थे। लेकिन परसों दिनवा एकदम दुपहरिया में भोंसड़ीवाला ऐसा फोड़ा कि हम पेड़ से लद से गिर गए। कनपट्टी सुन्न हो गया था। इधर टेनिया को तीन दिन से लेकर आ रहा है। का जाने का इरादा है।" ठाकुर उठ कर बैठ गए। खुनखुन ने ठोंगा से सुतली में बँधा हुआ बम निकाला और टेनिया को बोला कि "बेटा बस पटक देने से फट जाता है। चला के देख लो। लेकिन थोड़ा दूर फेंकना।" टेनिया हाथ में जब बम लिया तो उसको याद आ गया कि एक बार बीड़ी बम उसके हाथ में फूट गया था, तो हाथ सुन्न हो गया था। उसे लगा इत्ता बड़ा अगर हाथ में फट गया तो लूल्हा हो जाएगा और बियाह नहीं होगा। ऐसा सोच कर उसने खुनखुन से कहा कि "नहीं, तुम्हीं फोड़ो। हम देखेंगे।" खुनखुन ने कहा कि "अबे कुछ नहीं करना है बस फेंकना है, अपने आप फट जाएगा।" हाँ, ना - हाँ, ना के फेर में टेनिया ने कहा कि "तुम्हीं फोड़ो", कह के बम खुनखुन की तरफ उछाल दिया। खुनखुन समझ पाता, इससे पहले बम धरती को चूम चुकी थी। खुनखुनआ अब खूने-खून था। पूरे चेहरे में इतना छर्रा लगा था कि गिनना मुश्किल था। टेनिया का तो बम फटते ही फट के हाथ में आ गया था। बजाय खुनखुन को उठाने के वहाँ से सरपट हो लिया। बोखोरी का बेटवा वहीं थोड़ी देर में टें बोल गया। फुचफुचिया ने कहा, "अब साला! और इधर कोई नहीं आएगा।" शाम तक जब खुनखुन घर नहीं पहुँचा तो लोग ढूँढ़ने निकले। आखिरकार कस्बे के सीमांत पर उसकी लाश मिली। लोग-बाग इस रहस्यमय मौत को सुलझाने में असफल थे। तय हुआ कि रात में दाह-संस्कार ना करके अगले दिन किया जाए।
दाह-संस्कार के दौरान तरह-तरह की बातें होती हैं। उसी बातचीत के क्रम में किसी ने दूर की कौड़ी लाते हुए पंडित का पतरा और पंचक का पेंच फुसफुसा दिया। गाँव वालों को लगा कि ठाकुर ने एक को ले लिया अपने साथ। अब शायद दूसरे की बारी है। ठाकुर को जी में आया कि पीपल के चबूतरे से उतर कर जूतियाए साले को। लेकिन अपने नंगे पैरों को देख कर, मन मसोस के रह जाना पड़ा। खैर, फिर से पाँच मौतों वाली बात लोगों के मन में बैठ गई थी। ठाकुर का मूड खराब हो चला था। तुरिया बोला कि चलिए आज बसमतिया के अड्डे से घूमा लाते हैं। ठाकुर को दिल बहलाने के लिए यह खयाल अच्छा लगा। आज नदी के ऊपरी किनारे की राह पकड़ी गई। बसमतिया एक विधवा थी, जिसने जीने खाने के लिए ठर्रा और चुलइया बेचने का धंधा शुरू कर दिया था। हमेशा तैयार। खोपा में झब्बू, भर आँख काजल और होंठवा में लाली उसका ट्रेडमार्क था। थी तो काली लेकिन हँस कर गिलास में जब दारू ढारती थी तो गोबर से लिपे हुए जमीन में धूप के गोले उग आया करते थे। बस इत्ती-सी हँसी बिखेर कर वह अपनी दुकानदारी ठसक के साथ किया करती थी। लेकिन इससे पहले की वह बसमतिया के अड्डे पर पहुँचते, एक झोपड़ी से उनको कराहने की आवाज सुनाई पड़ी। इन मामलों में तुरिया के भीतर का खबरनवीस चौंचक हो जाया करता। कूद कर झोपड़ी के भीतर घुस गया। निकला तो बोला कि बुढ़िया को बुखार है। दू गो बेटी है, पर दूनो यहाँ से दस कोस दूर ब्याही है। कोई देखनेवाला नहीं है। लगता नहीं है कि बचेगी। खैर, हम क्या कर सकते हैं। कह कर दोनों आगे बढ़ गए। बसमतिया के अड्डे पर पहुँचे तो वहाँ आबकारी विभाग वालों का छापा पड़ा था। अफरा-तफरी का माहौल था। बसमतिया को झझड़-सी जीप में बिठाया जा रहा था, साथ में चोथमल बनिया और मोटका सोनार पीते पकड़ाया था। दो ब्लाडर भर कर माल धराया था। बसमतिया गौरवपूर्ण मुस्कान के साथ जीप पर सवार हो रही थी। दोनों जने वहाँ से खाली हाथ लौटे। तुरिया बोला मालिक आप जाइए, हम एक राउंड मार कर आते हैं। ठाकुर श्मसान के पीपल पर लौट आए।
अगले दिन तुरिया फिर खबर के साथ हाजिर। कल रात तो कांड हो गया। ठाकुर ने कुछ पूछा नहीं, बस निगाह उठाई। तुरिया रिपोर्ट करने की मुद्रा में हाजिर हो गया। बोला कि "अरे सिंहजी के घर में शादी है, तो मड़वा में नाच-गाना लगा रहता है। उसी में इधर दू रोज से रात को टोला की औरतें गीत गाया करतीं और झूमर खेला करतीं थीं। सिंहजी के घर के कोने में जो बेल का पेड़ था, उसमें फूलो चुड़ैल रहती थी। किसी को मालूम नहीं था कि अपने जमाने में झूमर और डमकच में उसका जोड़ नहीं था। रात में जब औरतें सुर-ताल के साथ झूमर खेलना शुरू करतीं तो उसका मन नाचने लगता। इधर बर्दाश्त के बाहर हो गया तो वह रूप धर कर, उनके बीच में जाकर घुस गई और घंटा-दो घंटा नाच कर पेड़ पर वापस लौट आई। लेकिन सिंहजी की औरत ने उसके जाने के बाद बाकियों से पूछा कि वह किसके घर की है, कभी देखा नहीं है। पर नाचती बड़ा जबर है। पहले तो बहुतों को ध्यान ही नहीं गया कि किसके बारे में बात हो रही है। अगली रात लोगों ने ध्यान से देखा। वह गाने के दौरान नहीं नाचने के दौरान अचानक से बीच में आकर हाथ जोड़ा कर नाचने लगी और खत्म होने से पहले चली गई। अगले दिन भी ऐसा ही हुआ, लेकिन झूमर के क्रम में एक की पायल खुल कर गिर गई और उसे उठाने के लिए वह कतार तोड़ कर बाहर निकली और झुकी तो आँखें फटी की फटी रह गईं। उस दिन का नाच जब खत्म हुआ तो उसने बताया कि 'अरे! उसके पैर मैंने देखे, उल्टे हैं। वह कोई चुड़ैल है, जो हमारे साथ आकर रोज रात में नाचती है। मालूम नहीं क्या इरादा है?' अगली सुबह गाँव की भगताईन से संपर्क किया गया कि उस चुड़ैल से कैसे निबटा जाए? उसने टोटका बताया। अगली रात फिर सब कुछ रोज की तरह ही शुरू हुआ। फूलो चुड़ैल बीच में आकर झूमर में शामिल हो गई। लेकिन रात दो मजबूत औरतों ने उसको दोनों ओर से नाचने के क्रम में हाथ जोड़ा लिया। नाच चलता रहा। लेकिन नाच खत्म होने से पहले जब फूलो हाथ छुड़ा कर निकलने को हुई तो उसने पाया कि उसके आजू-बाजू की औरतें उसे छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। फूलो ने थोड़ा जोर लगाया, पर हाथ इतनी मजबूती से उन्होंने पकड़ रखे थे कि छूटना मुश्किल था। अचानक घर के भीतर से एक जलती हुई बोरसी निकाल कर सामने रख दी गई। चार औरतें मोटी रस्सियों के साथ तैयार थीं। एक उसके कमर में बांधी गई, दो हाथ में, एक पैर में और उसे उसी बेल के पेड़ से बाँध दिया गया, जिसमें वह रहती थी। अब उससे बोरसी की आग में मिर्च झोंक-झोंक कर सवाल पूछे जाने लगे। फूलो नाक से बोल रही थी। 'मुंझें जांनें दों। मैं आंगें सें नंहीं आंउंगीं।' इस पर टोटके के अनुसार उसकी चोटी काटने के लिए कैंचीं लाई गई। अब वह दहाड़ें मार-मार कर रो रही थी। 'ऐंसां नां कंरों। मैं अंपंनीं दुंनिंयाँ में नंहीं लौंटं पांउंगीं।' फिर उससे यह वादा लेकर कि वह बेल का पेड़ और गाँव छोड़ कर चली जाएगी। उसे भोर होने से ऐन पहले जाने दिया गया। भूतों की भावनाएँ इस घटना से आहत हुई थीं। सब भूत इस मामले में एक मत थे कि आखिर फूलो ने किसी को कोई नुकसान नहीं पहुँचाया था इसलिए इनसानों को इतने बुरे तरीके से उसके साथ पेश नहीं आना था। एक भूत ने कहा कि इनसानों से और उम्मीद ही क्या की जा सकती है। किसी बदले की कार्यवाही को भूतों के सरपंच ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि फूलो ने विधान तोड़ा था। उसने इनसानों की दुनिया में जाने से पहले हमें विश्वास में नहीं लिया था। भूत मन मसोस कर रह गए और फूलो कपस कर। चूँकि भूत इस मामले में अलग-अलग मत रखते थे। सो भूतों के सरपंच ने कहा कि आज अब कहीं कोई बैठकी इस मामले में नहीं लगेगी। सभी अपने-अपने ठिकाने पर जाएँ। आज भूतों के घूमने-फिरने पर पाबंदी लगा दी गई।" मतलब भूतों की दुनिया में एक दिन के लिए धारा 144 लागू कर दिया गया। जिससे भूतों का जीवन अगले दिन सामान्य हो सके। सो ठाकुर, तुरिया और चनावाले ने अपना दिन श्मसान वाले पीपल पर ही बोलते-बतियाते बिताया।
अगले दिन गौरयों के शोर से उनकी आँखें खुलीं। देखा कि एक अरथी श्मशान में दाखिल हुई। बमुश्किल आठ-दस लोग थे। पर देखते-देखते पूरा पीपल गौरैयों से भर गया था। पीपल के पत्तों से ज्यादा गौरैये दिख रहे थे। हजारों गौरैयों की शोर से पूरा श्मशान नहा उठा था। ठाकुर ने माजरा समझने के लिए तुरिया की ओर देखा तो मालूम हुआ कि यह उसी बुढ़िया की अरथी है, जो रात में बुखार से कराह रही थी। गौरैयों के बारे में पूछे जाने पर तुरिया ने कहा कि बुढ़िया अकेली रहती थी। खुद के लिए खाना बनाए या ना बनाए पर दो वक्त इन गौरैयों के लिए रोटियाँ बनाना नहीं भूलती थी। उन रोटियों को टुकड़ कर वह आँगन में छींट देती थी। पिछले दस साल से वह बिना नागा ऐसा करती आ रही थी। दाह-संस्कार करके जब लोग चले गए तो बुढ़िया की आत्मा वहीं बैठी कपस रही थी। ठाकुर ने तुरिया को इशारा किया कि जाकर ढाँढ़स बँधाए। तुरिया गया और बोला "अगे माय! काले कांदत हिस? सब सिरालउ। अब चुप से रह। चैन से रह। अइसे कौन तोके देखे वाला हुआं रहथुन, जे तोंय रोवे लाइग हिस।" (माँ क्यों रोती हो? सब खत्म हुआ। अब सुख-चैन से रहो। ऐसे कौन-सा सुख भोग रही थी? कोई तो झाँकने वाला भी नहीं था, फिर क्यों रोती हो?) बुढ़िया ने कहा कि "दूनो बेटी के का तरी पोइस रहियव से तोंय का जानबे। लेकिन दरद-बथा और बुखार से तीन दिन से मोरत रहियउ, कई बार खबर भिजवालइय। लेकिन दूनो में से कोई देखे नइ आलथून रे बाबू। काइलो केवल आइ जात लंय, होले बिना दवाई-बीरो के मोंय उठ खड़ा होंत लों। आइजो बिहाने आइ जातलैं होले, कलेजा के चैन मिल जातलक। एक बार जीते जी दुइयो के देखे कर मन कर साध पूरा हो जातलक। लेकिन दुइयो सब काम उसराये के खाय-पी के आलैं। इ सोइच के कि कहीं जाय के बाद माय मोइर गेलउ तो दिन भर भूखे प्यासे रहेक पड़ी। ऐहे से कपसत हीअउ रे बाबू।" (दोनों बेटियों को किस तरह पाला था, तुम्हें मालूम नहीं। दर्द, बुखार से तीन दिन से मर रही थी, लेकिन दोनों में से कोई देखने तक नहीं आई, रे बाबू। कल भी आ गई होतीं तो मैं फिर से उठ खड़ी होती। आज भी सुबह आ गईं होतीं तो कलेजे को चैन मिल गया होता। यह सोच कर कि कहीं माँ मर गई तो दिन भर भूखे रहना पड़ेगा इसलिए खा-पीकर सब काम निबटा कर आईं। इसी से रो रही हूँ, रे बाबू।) यह सुनने के बाद तुरिया, ठाकुर और चनावाले को हिम्मत नहीं पड़ी कि सांत्वना के कोई और शब्द बुढ़िया के संबल के लिए ढूँढ़े। ठाकुर को लगा कि और थोड़ी देर रहा तो बुढ़िया के दुख से उसका सिर फट जाएगा, सो तुरिया को ढाँढ़स बंधाने का इशारा करके आज वे अकेले ही नदी के ऊपरी सिरे की ओर टहलते हुए निकल गए। ऊपर नदी थोड़ी सर्पीली थी। और उस ओर गाँव के टोले मुहल्ले के आदमी औरत नहाने-धोने का काम किया करते थे। सबसे नीचे वाली घाट पर धोबी कपड़े धोते थे और सबसे ऊपर वाली घाट पर ब्राह्मण, उसके नीचे राजपूत, फिर बनिया-सोनार और बाकी सबसे आखिर में धोबियों का घाट पड़ता था। ठाकुर धारा के विपरीत चल रहे थे सो धोबियों के घाट से होते हुए ऊपर की ओर बढ़े। नदी की ली गई हर करवट़ पर एक नया मोहल्ला आबाद मिलता। औरतों और मरदों के घाट अलग-अलग थे। लेकिन जाति व्यवस्था मरदों की घाट पर सख्ती से लागू थी, औरतों की घाट पर एक बहनापा था। औरतों की घाट से थोड़ी दूरी बनाकर वे ऊपर की ओर चले तो अंग्रेजों के जमाने की बिछाई रेल लाइन थी। उससे होकर ज्यादातर मालगाड़ियाँ गुजरा करती थीं। एक सवारी गाड़ी भी गुजरती थी। पटरी को पार करने पर एक गार्ड घर था जो अब परित्यक्त था। वह रेल लाइन कस्बे का सीमांत था। जैसे स्केल रख कर किसी ने लकीर खींच दी हो रेल की पटरियाँ उस कस्बे के लिए वैसे ही बार्डर की तरह थीं। इसलिए गार्ड घर कायदे से गाँव की सीमा रेखा के बाहर पड़ता था। गार्ड घर के पीछे एक पगडंडी फूटती थी जो जहर पोखर तक जाती थी। पोखर की खूबसूरती ऐसी थी कि उसे देखने के बाद उस पर उतरने से खुद को रोक पाना नामुमकिन था। उस पोखर में कोई मछली, जलीय जीव या पौधा नहीं उगता था। बावजूद इसके साल में एकाध के डूब के मरने की खबर जरूर आती। ठाकुर आज चुपचाप वहाँ पत्थर पर बैठना चाहते थे। अभी बैठे ही थे कि पानी से एक सिर निकला। ठाकुर को पीछे से उसके केवल बाल दिख रहे थे। इससे पहले कि वह चेहरा देख पाते, वह किसी उद्बिलाव की तरह फिर से पानी में जा समाया। दो-तीन मिनट बाद वह पोखर के दूसरे सिरे पर निकला। फिर थोड़ी देर बाद ठीक ठाकुर के सामने निकला। इस बार ठाकुर को सामने देख कर वह थोड़ा अकबका गया, लेकिन निकलकर बाहर आया। ठाकुर ने पहचानने की कोशिश की, पर पहचान नहीं सके। पूछने पर उसने कहा कि "कोई बीसेक साल पहले मैं पुराने कपड़ों को अलमुनियम के बर्तन और खिलौनों से बदलने का काम करता था। बाहर से इस कस्बे में आया था। रहने के लिए खाली पड़े इस गार्ड रूम का इस्तेमाल करने लगा था। दिन भर गाँव, देहात, कस्बे, मोहल्ले, टोले में हाँक लगाता और शाम से पहले लौट आता। एक दिन लौटा तो कपड़ों के पीछे एक बच्चा छिपा हुआ था। पूछने पर बताया कि फेल हो गया है। मास्टर ने बाप के साथ बुलाया है। पढ़ने में उसको मन नहीं लगता है और बाप पढ़ने के नाम पर पीटता रहता है। जब पता चलेगा कि फेल हो गया है तो बहुत मारेगा, इस डर से वह भाग आया है। दिन भर यहीं छिपा रहा, पर अब भूख लग रही है। और घर जाने पर और ज्यादा मार खाने को मिलेगा, सो अब वह जाना नहीं चाहता है। मैंने कहा कि मैं उसके पिता को समझाऊँगा कि वे उसे नहीं मारें। उस शाम खाने के लिए बची हुई पावरोटी का टुकड़ा उसे देकर मैं उसे घर पहुँचाने के लिए साथ लेकर यह सोचकर चला कि उधर से अपने खाने के लिए कुछ लेता आऊँगा। पर पटरी पार करने के बाद ही पाँच-सात लोग आते दिख गए। बच्चे को मेरे साथ देख कर, ओटेंगा (बच्चा चोर) समझ कर मारने-पीटने लगे। बच्चे ने बाप की मार की डर से कह दिया कि मैं उसे लेमनचूस और पावरोटी का लालच दिखाकर ले आया था। अब जो मेरे साथ मार-पीट शुरू हुई तो लोगों ने अधमरा करके ही दम लिया। कोई बात तक सुनने को तैयार नहीं था। केवल साँस भर बाकी रह गई तो वहीं अधमरा छोड़ कर लोग चले गए। रात में ठंड और दर्द बर्दाश्त नहीं करने के कारण चल बसा। सुबह थाना-पुलिस से बचने के लिए उन लोगों ने पटरी पर डाल दिया। डेढ़बजिया सवारी गाड़ी से मेरी लाश के दो टुकड़े हो गए। तब से यहीं हूँ।" ठाकुर ने कहा कि "जिस मुड़कट्टा भूत की बात होती है। वह तुम्हीं हो।" बोला कि "हाँ ट्रेन ने सिर और शरीर अलग-अलग कर दिए थे।" ठाकुर ने पूछा, "फिर...।" बोला कि "फिर क्या। बस यहीं बसेरा रह गया। कोई आता-जाता नहीं है। दीवाली के आस-पास जुआरी लोग ताश खेलने इधर आता है। बाकी कोई ताकता तक नहीं है।" ठाकुर ने पूछा कि फिर "उस बच्चे पर गुस्सा नहीं आया।" मुड़कट्टा भूत बोला "वह तो बच्चा था, उस पर क्या गुस्सा करता। गुस्सा बड़ों पर था। फिर समय के साथ वह भी जाता रहा। एक बार उनमें से एक धरा गया था, यहीं पोखर में। लेकिन लगा कि डुबा दूँगा तो उसके बच्चे अनाथ हो जाएँगे। सो छोड़ दिया। उसी ने जाकर 'मुडकट्टा भूत' वाला हल्ला कर दिया। बस तब से ऐसे ही है।" ठाकुर एकांत की तलाश में इस ओर आया था, पर यहाँ भी एक जोड़ीदार निकल आया। सो वापस मरघट की राह ली। रास्ते में औरतों के घाट पर बनिया के लड़के को दम भर औरतों के हाथ से कुटाते देखा। लेकिन रुके बगैर बढ़ गए। मसान के पीपल पर पहुँचे तो तुरिया बुढ़िया को छोड़ आया था। चनावाला गायब था। ठाकुर ने तुरिया से पूछा कि "औरतों के घाट पर बनिया का लड़का कुटा रहा था।" तुरिया ने कहा कि "हाँ, चोथमल का बेटवा होगा बैजू। साला एक नंबर का छंटल है। दो-एक दिन में नहाने के समय में अपना चप्पल नदी में बहा देता है। फिर चप्पल पकड़ने के लिए पानी में दौड़ता हुआ नीचे औरतों के घाट तक चला आता है। आज पकड़ के कूच दिया होगा औरतों ने। कल से लाइन पर आ जाएगा।" तुरिया बोला आप तनिक सुस्ताइए हम एक चक्कर लगा कर आते हैं।
अगले दिन तुरिया ने चहकते हुए ठाकुर से कहा कि "साँझ को चलल जाएगा, बसमतिया छूट के आ गई है।" और साँझ को बसमतिया के ठेके पर जब दोनों पहुँचे तो मजमा लगा हुआ था। चखना में फुलावल चना, नीमक और मिरचाई रखा था। एक घूँट उतारने के बाद पियक्कड़ चार दाना चना फाँक कर नीमक से मिरचाई लगा कर चाट जाते या काट जाते। बसमतिया उनके बीच रानी मधुमक्खी लग रही थी। जो रोज के थे, उनके लिए पीढ़ा था। जो कभी कभार वाले थे, वे चुक्कु-मुक्कु होकर बैठे थे। लेकिन जो थोड़ी हैसियतवाले थे और बसमतिया के फेर में आते थे, वे मचिया में बैठे थे। जो पीते कम थे, बतियाते और ताड़ते ज्यादा थे। लेकिन मजाल है कि बसमतिया बात के अलावा उनको रस लेने का कोई और मौका दे। वहीं पियक्कड़ों की आपसी बात-चीत में ठाकुर को मालूम हुआ कि गाँव वालों की निगाह में ठाकुर का स्कोर दो हो गया था। बुढ़िया की मौत भी ठाकुर के खाते में डाल दी गई थी। ठाकुर का मन कर रहा था कि पंडित को अभी के अभी दाग दे। सब अपने कर्मों का फल भुगत रहे थे और यहाँ सेहरा ठाकुर के सिर बँध रहा था। ठाकुर बिना कुछ कहे-पूछे तुरिया को छोड़ कर वहाँ से चल दिए। उनके जाने के बाद वहाँ एक कांड और हो गया। इंद्रजीत नाम का एक तीस साल का युवक जिसकी शादी पिछले साल ही हुई थी और अभी दस दिन ही हुए थे, बाप बने। कबाड़ खरीदने-बेचने का काम किया करता था। शाम को पीने की आदत थी। उसने चोरी के तांबा-पीतल का कोई माल खपाया था, पुलिस की दबिश के आगे चोर औने-पौने में माल फेंक कर भाग गए थे। पर अब मामला ठंडाने के बाद वह इंद्रजीत से और पैसा माँग रहे थे। बसमतिया के ठेके से निकलने के बाद उसको उन चोरों ने घेर लिया था। पीये हुए होने के कारण वह उनको जो करना है, कर लेने की बात कर रहा था। बात थोड़ी बढ़ गई तो उसमें से एक ने उसके पेट में चाकू से वार कर दिया। उसकी चीख सुनकर बसमतिया और दो-एक लोग निकल आए थे। इंद्रजीत औंधे मुँह जमीन पर गिरा हुआ था। बाकी पियक्कड़ तो वहाँ से तुरंत हवा हो गए। बसमतिया किसी तरह एक रिक्शा में लादकर उसे कस्बे के झोला छाप डॉक्टर के पास ले गई। कुछ तो डॉक्टर की नासमझी, कुछ कमाने की नीयत के कारण खून बहुत बह जाने से इंद्रजीत की मौत हो गई। पुलिस का मामला होने के कारण खबर ही घर तक पहुँची थी, लाश नहीं। यह पहली बार हुआ था कि कस्बे में आधी रात में जाग पड़ गई थी। रोना-पीटना शुरू हो गया था। इंद्रजीत की पत्नी तो बेसुध होकर रो रही थी। पर बार-बार दाँत इंद्रजीत की माँ का लग रहा था, होश आने पर भोकार फाड़ के उसकी माँ ही रो रही थी।
सुबह जब लाश दरवाजे पहुँची, तब कोई उसकी माँ के रुदन को सुनता, तो इंद्रजीत के जीवन की पूरी कहानी लिपिबद्ध कर देता। 'अब केकरा देख के जीबो रे बेट्टा, अब हमरा आगि के देतो रे बेट्टा, तोरा बेटवा के अब के देखतौ रे बेट्टा, तोर दुलहिन के का होतौ रे बेट्टा, हमरा काहे न भगवान ले गइलथू रे बेट्टा, उ पपीहवन के तू का बिगड़ले रहले रे बेट्टा।' उसके माँ की चीत्कार से आस-पड़ोस तक हिल गया था। अरथी उठाने के समय तो वह इस कदर अपने बेटे से लिपट गई थी कि अलगाना मुश्किल हो गया था। जो हालात हो रखी थी। लगा कि अरथी जल्दी नहीं उठी तो एक साथ दो अरथी उठाने की नौबत कहीं ना आ जाए।
यह सब इतना कारुणिक था कि देखनेवालों की छाती फट रही थी। आनन-फानन में इंद्रजीत की लाश उठाकर मसान पहुँचवा दी गई। चिता सजनी अभी बाकी थी। लोग-बाग अपने ढंग से उस घटना की परतें उधेड़ रहे थे। किसी ने फिर याद दिला दिया था कि ठाकुर का यह तीसरा शिकार है। लोग अब ठाकुर को गरिया रहे थे कि उसे इसे ले जाने की क्या जरूरत थी? इस सबसे ठाकुर की आत्मा बड़ी डिप्रेस्ड फील कर रही थी। ठाकुर अपनी बेबसी पर कायदे से रो भी नहीं पा रहे थे। उसने वहाँ से खिसक लेने में ही भलाई समझी। तुरिया को भी लगा कि इस केस को हैंडल करना उसके बूते का नहीं है, वह भी चुपचाप उतरा और सरपट हो लिया। साँझ तक इंद्रजीत का दाह-संस्कार कर दिया गया था। जब दाह-संस्कार हो रहा था, उस दौरान पुलिस बसमतिया समेत बाकी लोगों से पूछताछ और गिरफ्तारी के सिलसिले में छापामारी कर रही थी।
अगली सुबह इंद्रजीत की आत्मा भी मरघट के पीपल पर बैठ कर बिसूर रही थी। ठाकुर की आत्मा अलग परेशान थी कि सारी मौतों को उसके सिर मढ़ा जा रहा था। तुरिया भी उतर कर खिसकने की फिराक में था। ठाकुर ताड़ गए थे। उसने निगाहों से रुकने का इशारा किया। वे और तुरिया इंद्रजीत को रोता छोड़ कर पीछे से कट लिए।
तुरिया बोला - "अभी समझाने को कोई फायदा नहीं है। साल भर की शादी, दस-पंद्रह दिन का बच्चा और बूढ़ी माँ सब छोड़ कर आया है। दो-तीन दिन तो बोली का कुछ असर नहीं होना है। इसके हाल पर छोड़ देना ही बेहतर है। झूट्ठे बाप-भाई बनने का कोई फायदा नहीं होना है।"
ठाकुर बोले - "एक बात सच-सच बताओ। क्या तुम्हें भी लगता है कि यह जो मौतें हो रहीं हैं। यह मेरी वजह से हो रही हैं?"
"नहीं, एकदम नहीं। लेकिन ऐसा आपको काहे लग रहा है?"
"अरे! ऊ बुतरू पंडित ने लोगों के कान में पंचक-तंचक का मंत्र फूँक दिया है, ना। सब बात-बेबात यही कह रहे हैं कि ठाकुर इसको भी ले गया।"
"बहुत ग्यानी और शास्तर जाननेवाला है क्या?"
"मालूम नहीं।"
"तो परेशान काहे हैं?"
"यही तो परेशानी है। अभी तीन महीना पहले उसके नाना मतलब हमारे कुलपुरोहित गुजर गए। उम्र ऐसी थी नहीं। पर मालूम नहीं कैसे चल बसे। बेटा कोई था नहीं बेटी ही थी। सो उसी के बेटे को जजमानी के लिए यहाँ बुला लिए। और आते ही उसने यह पतरा देख कर पंचक वाला फूँक दिया है।"
"ओह! ध्याने नहीं दिए थे। अब आप बोले तो ध्यान गया। वैसे एक बात तो है कि जो भी इस बीच मरा है। उसके आस-पास से आप गुजरे जरूर हैं।"
"अरे! गुजरे तो तुम भी हो?"
"लेकिन हम तो रोजे गुजरते हैं। ऐसा तो पहिले कहियो नहीं हुआ। मतलब आप कह रहे हैं, तो, हमको बस खियाल पड़ा। बाकी काहे नहीं बुतरू पंडिते को पकड़ के सोंट दिया जाए। साला, सब बक देगा।"
"देखो हम ठहरे ठाकुर। ब्रह्म हत्या का पाप हम अपने सिर नहीं ले सकते हैं।"
"ना, ना। उ तो आप ऐसे भी नहीं कर सकते हैं। इसके लिए तो हमको अपने इलाके और धर्म के बाहर से किसी को लाना पड़ेगा।"
"क्या मतलब?"
"मतलब इ कि अभी तो तेरहवीं तक आप बस टुकुर-टुकुर देख भर सकते हैं। सब नेग विध कर दिया तो फिर यहाँ से भी टिकट कट जाएगा। और आपके जाने के बाद भूतवन की कचहरी में हम अपनी तारीख पर तारीख तो नहीं लगवाएँगे ना। बाहर से जिन्न बुलाएँगे। जिन्न समझ रहें हैं ना मुसलमान भूत। उस पर घंटा इन लोगों का कौनो कानून नहीं चलना है।"
"लेकिन भाई! जिन्न लाएँगे कहाँ से और वह मेरा काम क्यों करेगा?"
"ऊ आप हम पर छोड़ दीजिए, ऊ मेरा जिम्मा रहा।"
"ठीक है भाई। मैं यह बोझ लेकर यहाँ से जाना नहीं चाहता हूँ। यह अहसान कर दो।"
"ठीक है। आप जाइए। हम आपका काम करके और एक ट्रिप मारके आते हैं।"
ठाकुर के पास अब जाने को कोई ठौर नहीं था। मरघट पर इंद्रजीत का रुदन जारी था। और इस वक्त वह उससे आमने-सामने होने के मूड में नहीं थे। उनके मन में अपने खेत, बगीचे और पोखर को एक आखिरी बार जी भर के देख लेने की हूक उठी। बगीचा और पोखर तक पहरेदार प्रेतों के होते दिन में पहुँचना मुश्किल था सो वे कस्बे के बाहर-बाहर चलते हुए अपने खेतों पर पहुँचे तो देखा कि बुतरू पंडित उनके खेत में एक बड़ा-सा गड्ढा खुदवा रहा है। ठाकुर को समझ में नहीं आया कि माजरा क्या है? काम रुकवाने के लिए मजदूर के गईंता और कुदाल को कई बार उन्होंने पकड़ने की कोशिश की पर उनका वजूद हवा-हवाई निकला। उन्हें याद नहीं पड़ रहा था कि जीते जी कभी इतने बेचैन हुए थे या नहीं जितना अभी ऐन इस वक्त मरने के बाद थे। वहीं खेत की मेड़ पर बैठ कर कभी पंडित को देखते, कभी उस खुदते गड्ढे को। शाम तक में गड्ढा तैयार हो चुका था। उनके पास लौटने के अलावा कोई चारा नहीं था। मरघट लौटते-लौटते अँधेरा घिर आया था। इंद्रजीत अपने पत्नी-बच्चों की झलक पाने के लिए शायद जा चुका था। तुरिया का कोई अता-पता नहीं था। ठाकुर भी बेकरारी में अपने घर की ओर हो लिए थे। कल दसवाँ था। आधी रात गुजरने के बाद पूरा मूड बना कर तुरिया लौटा। ठाकुर को मालूम था कि अब तो इससे कोई बात करना बेकार है। सुबह उसकी नींद खुलने का इंतजार करना था।
सुबह काफी दिन चढ़ने के बाद तुरिया की आँख खुली तो देखा कि ठाकुर उसे ऐसे ताक रहें हैं, जैसे कोई बेहोश आदमी के होश में आने का इंतजार करता हो। एक पल को तो तुरिया अकबका गया था, लेकिन जल्द ही सामान्य हो गया। इंद्रजीत नीचे था। लेकिन आज थोड़ा संयमित था। फिर भी दोनों ने कहीं और चलकर बात करने की ठानी। तुरिया ने कहा "बात हो गई है। आज छोड़कर कल पंडित को घेरा जाएगा। शाम में मंदिर की संध्या आरती के बाद। जब वह घर लौटैगा तो बीच मैदान में दबोच लिया जाएगा। निश्चिंत रहिए।"
"आज क्यों नहीं?"
"क्योंकि सरकार आज आपका दसवाँ है। आज पकड़ना नमकहरामी हो जाएगी। वह आपका परलोक सुधारने में लगा है और आप उसका डंटा करने में लगे हैं। यह ठीक बात नहीं है। आज भर माफ कर दीजिए। कल हिसाब-किताब बराबर। पक्का।"
"एक और बखेड़ा है।"
"सो क्या?"
"पंडित मेरे खेत में गड्ढा खुदवा रहा है।"
"सो काहे?"
"सो हम क्या जानें?"
"दम धरिए। कोई बात नहीं। ई भी कल साफ हो जाएगा।"
"तब तक हम क्या करें?"
"सोचिए।"
"क्या?"
"यही कि क्या-क्या पंडित से पूछना है?"
(इस सवाल से तुरिया अब मन ही मन झल्ला रहा था कि मानो उसने ठाकुर का कर्जा खाया हो, भूत होने के नाते उसने हमदर्दी क्या दिखाई। ठाकुर तो सिर पर सवार हो गया था। उसने कन्नी काटने में भलाई समझी।)
ठाकुर के पास अब दिन काटने के अलावा दूसरा चारा नहीं था। दोपहर तक तो वह अपने दशकर्म के विधि विधानों को देखते रहे। उसके बाद मन नहीं माना तो उठकर अपनी खेतों की ओर चल दिए। गड्ढा वैसे ही खुदा था। दूर-दूर तक कोई अरेवा-परेवा का अता-पता तक नहीं था। वीरानी-सी वीरानी थी। उनके खेत से ही लगीं, उनके मृत कुलपुरोहित की जमीनें थीं। ठाकुर की समझ के परे था कि कुलपुरोहित की इतनी जमीनें होने के बाद भी यह पंडित उनके जमीन पर क्या कर रहा है? यह पहेली समझ के बाहर थी। साँझ ढलने से पहले ठाकुर उठे और चलने को हुए, पर क्या मन में आया कि चलते हुए उस गड्ढे के पास आ गए। गड्ढे से बाहर मिट्टी की ढेर लगी थी। मिट्टी के ऊपर चढ़ कर गड्ढे में नीचे झाँका तो आत्मा काँप गई। पहली बार शायद कोई भूत कुछ देख कर डरा हो। उस गड्ढे में एक सिर कटी गाय थी। ठाकुर के होश उड़ गए थे। आखिर यह हो क्या रहा है? दौड़े भागे लौटे तो सही, पर तुरिया का अभी कोई अता-पता नहीं था। इंद्रजीत भी निकलने की तैयारी में अँधेरा के इंतजार में था। ठाकुर की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। वे जान रहे थे कि तुरिया जब लौटेगा तो बात करने लायक स्थिति नहीं रहेगी। अब कल तक फिर बेचैनी। मन ही मन सोच रहे थे कि जल्दी से श्राद्ध कर्म संपन्न हो और मुक्ति मिले। यह मरण तो मनुष्यों के जीवन से ज्यादा खतरनाक और तनावपूर्ण है। जिन भूतों को मुक्ति नहीं मिली और वे प्रेत योनि में ही रह गए, उनके जीवन की भयावहता का वे अनुमान करने की स्थिति में भी नहीं थे।
ग्यारहवाँ दिन शुरुआत के मामले में दसवें दिन की कार्बन कॉपी साबित हुआ। सिवाय इसके कि सिरकटी गाय की बात पर तुरिया उछल कर खड़ा हो गया था। उसके भीतर का खबरनवीस अफसोस से भर उठा था कि इत्ता बड़ा कांड हो गया है और उसे खबर तक नहीं। उसने ठाकुर से शाम को तैयार रहने को कहा और निकल लिया। पूरा दिन ठाकुर ने अश अश करके काटा। इंद्रजीत सामान्य हो चुका था। लेकिन ठाकुर को लगा कि अब चला-चली की बेला में क्या नया मोह का बंधन गले लगाया जाए। सो बात-चीत की शुरुआत नहीं हो सकी। जैसे-तैसे दिन ढल ही गया। शाम को तुरिया वादे के अनुसार हाजिर हो गया। दोनों अँधेरा होने के बाद निकल पड़े। ऐन मैदान के बीचो-बीच घात लगाई गई। ठाकुर ने जिन्न को अपनी सारी जिज्ञासाएँ बता दीं। सात-साढ़े सात के आस-पास मैदान के एक सिरे पर एक आकृति उभरी जो धीरे-धीरे उस मैदान के बीचों-बीच धीरे-धीरे बढ़ती दिखाई पड़ी। हाथ में एक झोला था, शायद उसमें हरी सब्जियाँ थीं। तभी बुतरू पंडित को लगा कि उनकी धोती कहीं फँस गई है। छुड़ाने को मुड़े तो धोती को एक आदमकद शिखाधारी टकले के पाँव तले दबा पाया। इससे पहले कि पंडित कुछ कहते टकले ने पूछा "माचिस होगा जनाब?" अँधेरे में उसकी आँखें और कुंडल चमक रहे थे।
पंडित ने कहा "जी, नहीं।"
"ओह, बेहतर। मेरे पास है, आपको चाहिए।"
"हाँय! क्या मजाक है?" इसके पहले पंडित अगला शब्द उच्चारते कि वे जमीन पर चित्त पड़े थे और वह गंजा उनकी छाती पर सवार था। पंडित की हालत खस्ता हो गई थी। जिन्न ने बड़ी मुलायमियत के साथ कहा - "हजरात! हम आपकी जान के दुश्मन नहीं हैं। बस कुछ मालूमात करने हैं, उसी सिलसिले में दरियाफ्त करना है। गर आप सवालों के सही-सही जवाब देंगे तो आपकी जान बख्श दी जाएगी और नहीं तो आपको मालूम ही होगा कि पंचक में किसी की भी जान जा सकती है।" बूतरू पंडित ने बिना एक पल गँवाए हनुमान चालीसा का पाठ शुरू कर दिया "भूत पिशाच निकट नहीं आवे, महावीर जब नाम सुनावे।" जिन्न ने एक चमाट लगाते हुए कहा "हजूर! यह भूत, पिशाचों पर असर करता हो, शायद। पर हम तो जिन्न ठहरे। अपन निकट आ सकते हैं। तो दो चार लाफे खाने के बाद सीधा होंगे कि ऐसे ही अकल ठिकाने लग गई है? देखिए यों तो हमारे पास पूरी रात है। पर देर होने की स्थिति में हमें आपको उठाकर कब्रगाह ले जाना होगा। तो जनाब आप तय करें।" बुतरू पंडित की हवा टाईट हो गई थी। काँपती और फँसती आवाज में बस इतना भर कह सके कि "मेरे प्राण मत लो।" जिन्न ने कहा - "हमने कब कहा कि हम आपकी जान लेंगे। हमें तो बस जवाब चाहिए। लेकिन यह आपको तय करना है कि आप जवाब देंगे कि जान।"
पंडित ने काँपती आवाज में कहा, "जी कहिए।"
"इ ठाकुर और पंचक का चक्कर क्या है मियाँ, पूरी बस्ती हलकान है?"
"कुंभ आदि राशि के पाँच नक्षत्रों में मरण हुआ तो उसे पंचक मरण कहते हैं। यदि मृत्यु पंचक के पहले हुई हो और शवदाह पंचक में होना हो, तो पुतलों का विधान करना होता है। ऐसा करने से अलग से शांति कर्म की आवश्यकता नहीं होती। इसके उलट यदि मृत्यु कहीं पंचक में हुई हो और अंतिम संस्कार पंचक के बाद हुआ हो तो शांति कर्म करने का विधान है। यदि मृत्यु और शवदाह दोनों पंचक में हुआ हो तो पुतला दहन और शांति कर्म दोनों करना होगा।"
यह जवाब सुनकर जिन्न का दिमाग तो चकरघिन्नी बन गया था। तुरिया ने जिन्न के कान में अगला सवाल दागा। जिन्न ने छूटते कहा कि "यह बताओ कि ठाकुर क्या सच में पंचक में मरने के कारण अपने साथ पाँच और लोगों को लेकर जाएगा।?" पंडित इस सवाल पर चुप लगा गया। जिन्न ने कहा कि "जवाब देते हो मियाँ या लेकर चलूँ कब्रगाह?" बुतरू पंडित इस पर बिलखने लगा कि "नहीं ऐसा नहीं है। मैंने दान-दक्षिणा के लोभ में लोगों को डराने के लिए ऐसा कहा था, जिससे वे इसके निदान के लिए मेरे शरणागत हों। और मेरे अर्थोपार्जन का मार्ग प्रशस्त हो।"
"हम्म! तुम्हें मालूम है कि जिंदा तो अलग साले मुर्दे भी परेशान हैं। उन मौतों को लेकर जिनके लिए वे कतई जिम्मेदार नहीं हैं। लोगों की जिंदगियाँ और मुर्दों की मौतें हराम हो रखी हैं। लोगों को डरा कर धर्म का व्यापार करते हो।"
"भय से उपजी आस्था से धर्म प्राणवान बनता है और श्रद्धा से उपजी आस्था से वह गतिमान रहता है। इन दोनों के संरक्षण और संवर्द्धन की जिम्मेदारी हम पर है। हम उसका निर्वाह कर रहे हैं, बस।"
बात को गंभीर मोड़ लेता देख कर तुरिया फिर कूदा और अगला सवाल पहुँचाया। जिन्न ने पूछा "और ठाकुर की खेत में गोकशी का क्या मामला है? दंगा कराने का इरादा है, क्या?" पंडित जो थोड़ा संयत हो चुका था। इस सवाल से फिर गड़बड़ा गया। उसने धीरे से फुसफुसाते हुए कहा कि "साहब जिन्न हो कि सीआईडी हो, पहले यह बता दो?" जिन्न ने पलटकर कहा कि "कब्रगाह वाली इमली के दरख्त पर तफ्तीश के लिए लेकर चलूँ, वहीं जाकर पता चलेगा कि मैं कौन हूँ?" पंडित ने कराहते हुए कहा कि "कहानी लंबी है, छाती पर ऐसे बैठे रहोगे तो प्राण निकल जाएँगे।"
"ठीक है फिर उतरता हूँ। बिस्मिल्लाह करो।"
"थोड़ा पानी मिल जाता तो गला तर हो जाता।"
"चलो कब्रगाह वाली इमली पर पिलाता हूँ, आबे जमजम।"
"ठीक है, ठीक है, सुनो! लगभग तीन मास पहले हमें सूचना मिली की नाना (कुल पुरोहित) का निधन हो गया है। मेरे विवाह को छह मास बीते थे। माँ और बहू के साथ यहाँ आना पड़ा। नानी अकेली थी। नाना की अंत्येष्टि खत्म होने के बाद जब हम जाने को हुए तो नानी ने कहा कि क्यों ना यहीं रह जाओ। नाना की जमी जमाई जजमानी है, दूर-दूर तक उनकी प्रतिष्ठा थी। नई गृहस्थी है, यहीं बस जाओ। आखिर कहीं तो जीवन व्यवस्थित करना होगा। यहाँ सब है ही। मेरे बाद इस सब को कोई देखनेवाला भी नहीं है। माँ ने कहा रुक जाओ। वहाँ ऐसे भी हालत अच्छी नहीं थी, सो मैं यहाँ रुक गया। नाना की जो प्रतिष्ठा रही हो लेकिन मेरे युवापन के कारण उनके जजमानों से मुझे ना तो वैसा मान मिला और ना कोई दान-दक्षिणा। कर्मकांडों, पूजा-पाठ, विधि-विधान में भी मुझे कभी-कभार ही सर्वप्रथम खोजा जाता। अनाज इतना उपजता है कि जीवन सुखपूर्वक व्यतीत हो जाएगा। लेकिन जो विद्योपार्जन किया है, उसका क्या? नानी से कहा तो बोली तुझे क्या कष्ट है? धीरे-धीरे लोग जान जाएँगे। लेकिन इस दिशा में कोई प्रगति ना देख कर मैंने वापस जाने का निश्चय कर लिया। तब नानी ने बताया कि एक पिशाच का साया है, इस घर पर। उससे एक प्रण में बँधे थे तुम्हारे नाना। उसका मानपूर्वक आह्वान करके देखो। संभव है कि स्थितियाँ बदल जाए। तुम्हारे नाना साल में उसे एक गाय की बलि देते थे। मुझे यह थोड़ा विचित्र जान पड़ा तो मैंने और जानने की कोशिश की। अंततः नानी ने पूरी बात बताई। नाना के यहाँ एतवा नामक एक आदिवासी धांगर था। अकेले पूरा खेत-बारी-खलिहान वही सँभालता था। एक साल धान का बीहन करना था। नाना खेत गए हुए थे। नानी और बाकी रेजा (महिला मजदूर) लोग घर में धान को दउरा में भर रहीं थीं। बारिश के जैसा मौसम हो रहा था तो वो लोग जितना दउरा ले जा सकतीं थीं, लेकर चलीं गईं। उनके जाने के बाद एतवा आया था। एक दउरा धान यहीं आँगन में पड़ा था। बहुत देर इधर-उधर देखने के बाद उसने नानी से कहा कि 'गोमकाइन कोई दिसे नइ लाइग हैं, तनी कुन दौरा अलगाय देवब का? मालिक हुआँ राह देखत होंबें।' (मालकिन कोई तो दिख नहीं रहा है, जरा दउरा उठाने में मदद कर दीजिएगा। मालिक वहाँ प्रतीक्षा कर रहें होंगे।) और नानी ने झुक कर वह बीहन वाला दउरा उठाने में उसकी मदद कर दी थी। जब एतवा खेत पहुँचा तो मालिक ने पूछा कि घर में कौन था? एतवा ने बताया कि केवल मालकिन। नाना अच्छा कहके चुप लगा गए थे। जब धान का बीहन हो गया तो एक दिन नाना ने एतवा को बुला कर कहा कि जुग-जमाना खराब हो रहा है। रात-बेरात जजमानी में बाहर रहना पड़ता है। घर में गहना-जेवर, बर्तन-बासन बहुत है। ऐसा करो आँगन में एक गड्ढा खोदो उसमें सबको एक बड़ा बक्सा (ट्रंक) में करके डाल देना है। एतवा ने जब गड्ढा खोदना शुरू किया तो नाना ने कहा कि जरा लंबा और गहरा खोदना इतना जितने में तुम्हारे जैसा इनसान आराम से सो सके। दो दिन में गड्ढा तैयार हो गया था। नाना ने कहा कि उतर के देखो तो कितना गहरा है। वह उतरने को झुका की एक धारदार हथियार से उन्होंने एतवा का सिर धड़ से अलग कर दिया था। एतवा का धड़ उस गड्ढे में काफी देर तक छटपटाता रहा था। सिर कट कर अलग पड़ा था, लेकिन उसकी फटी आँखों से आँसू बंद होने का नाम नहीं ले रहे थे। नानी जब बाहर निकलीं तो देखा कि नाना खुद गड्ढे में मिट्टी भर रहे थे। जब नानी ने एतवा के बारे में पूछा तो नाना होंठ भींच कर रह गए थे। नानी नाना के मदद की नीयत से मिट्टी भरने के लिए जब आगे आईं तो एतवा को देख कर वह बेहोश हो गईं थीं। होश आने पर नाना ने कहा कि क्यों दुख हुआ, उसे मरा देख कर। नानी ने पूछा आपने ऐसा क्यों किया। नाना का जवाब था, मेरी अनुपस्थिति में तुम दोनों जो करते थे, वह न कर सको इसलिए। नानी को काटो तो खून नहीं। उन्होंने कहा कि आप क्या अनर्गल कह रहे हैं। उसने माँ से कम कभी मुझे माना नहीं और मालकिन छोड़़ कर कुछ कहा नहीं। आप ऐसा सोच भी कैसे सकते हैं? तो नाना बोले मुझे सब मालूम है, उस दिन जब वह बीहन लेकर खेत पर गया था तो उसके ललाट और बनियान पर तुम्हारे सिंदूर के निशान थे। तो बोली हाँ, कोई नहीं था। उसने दउरा उठाने में मदद माँगी थी, मुझे इसका अनुभव नहीं था, तो उठाने के क्रम में सिर उसके सिर से टकरा गया था। अब नाना को काटो तो खून नहीं। जो होना था, सो हो चुका था। अपने जानते उन्होंने उसे दबाने की पूरी कोशिश की। वह बात कभी बाहर नहीं आ सकी। लेकिन एतवा खुद बाहर आ गया था, एक पिशाच की शक्ल में। वह हर तीज-त्योहार में भोजन माँगने पहुँच जाता। कहता कि पूरी जिंदगी तुम्हारे दरवाजे पर खटे और खाए तो अब कहाँ जाएँगे। दूसरे के घर का ना तो कपड़ा मुझे जँचता है और ना खाना रुचता है। सो जैसा पहले देते थे, वैसा अब भी लेंगे। गरू-काड़ा (गाय-भैंस) जैसा खटते थे, अब गरू-काड़ा खाएँगे, नहीं दोगे तो चैन से रहने नहीं देंगे। मेरे बाप-दादा की मेहनत पर तुम लोगों का पेट पला, अब तुम मुझे पालो-पोषो। नहीं तो मैं तुम्हारा वंश आगे नहीं बढ़ने दूँगा। माँ इस घटना के पहले जन्मी थीं। फिर नाना को कोई संतान नहीं हुआ। इन्हीं तनावों से नाना चल बसे। मैंने जब आह्वान किया तो वह आया और बोला कि नाना का हिस्सा चाहिए तो उसके पाप में भागी बनो। मालिक जो चढ़ाते थे सो चढ़ाना पड़ेगा और नहीं तो सब छोड़ कर जाना होगा। इसलिए ठाकुर के खेत में गाय की बलि दी गई है।" तुरिया ने जिन्न के कान में फिर सवाल छोड़ा। जिन्न पूछा कि "उसी के बगल में तो तुम्हारे खेत हैं, तुमने उसमें बलि क्यों नहीं दी?" मैं नया हूँ इस कस्बे में। मेरे खेत से ऐसी कोई चीज मिल गई होती तो मुझे सब कुछ छोड़ कर जाना पड़ता। इसलिए ठाकुर की खेत का इस्तेमाल किया।" जिन्न बोला बिना उनकी जानकारी के। पंडित बोला "नहीं मैंने ठाकुर के घर में कह दिया था कि पंचक मरण के निवारण के लिए एक टोटका कर रहा हूँ। उस ओर तेरहवीं तक किसी को जाने की जरूरत नहीं है। जो गया वह पंचक के फेर में पड़ जाएगा।" जिन्न ने तुरिया को इशारा किया। अब क्या? जवाब ठाकुर ने दिया - "जाने दो, अब इसे।"
अगले दिन बुतरू पंडित ने पहला काम यह किया कि ठाकुर की अंत्येष्टि से जुड़े सारे विध और कर्म खत्म किए कि एक टंटा तो खत्म हो। ठाकुर की आत्मा के पास अब रुकने की कोई वजह नहीं थी। अगली यात्रा पर जाने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया था। ठाकुर अपने श्राद्ध कर्म के सारे संस्कारों को अपने बेटे को करते देख और इन बारह दिनों में घर की सारी जिम्मेदारियों का निबाहते देख कर पूरी तरह आश्वस्त और संतुष्ट हो चुके थे कि अब आसानी से पारगमन किया जा सकता है। तेरहीं यानी कल उनकी इस लोक से अंततः रवानगी थी। अगले दिन सुबह तुरिया से ठाकुर ने कहा कि तुम नहीं होते तो छाती पर बोझ के साथ ही जाना होता। तुम्हारा अहसान याद रहेगा। तुरिया सुन कर सिर्फ मुस्कराया भर। ठाकुर ने कहा अब तो चला-चली का समय है। इतनी बातें हुईं पर यह कभी जान नहीं सका कि तुम कैसे मरे थे? तुरिया बोला कि "अब क्या बताएँ! सुबह होते-होते नस टानने लगता था, दिन-रात दिमाग पीने का जुगाड़ लगाने में जुटा रहता था। कोई पिला दे, कहीं से दू पैसा मिल जाए, बस इसी चिंता में जिंदगी गुजर रहा था। सरसत्ती पूजा के भसान वाला दिन था। हम भी चढ़ा के पोखर वाले पीपल के नीचे सुतल थे। साँझ के समय में दू-चार ठो भसान वाला लोग नाचते-गाते आया तो नशा और नींद टूटा। मातल तो तभीयो थे ही। पूरा उतरा नहीं था। लड़का-बच्चा लोग सरसत्ती माता को रिक्शा से उतार कर पानी में भसा रहा था। तभी एगो मूर्ति लेकर पानी में उतरा हुआ बच्चा लोग हल्ला करने लगा कि कोई डूब रहा है। हम देखने के लिए चले गए। सब छोड़ कर भाग गया था। हम पोखर में उतर गए थे। मूर्ति में मालूम नहीं कौन था उसका पैर दब गया था। उसी को निकालने में का जने कैसे डूब गए, हमको मालूम भी नहीं हुआ। उ लोग जाकर किसी को घटना के बारे में मार के डर से बताया नहीं। दो दिन बाद हम फूल के यहीं तैरते नजर आए। गाँव वाला जानता है कि पी कर नशा में डूब मरे होंगे।" इतना कहने के बाद तुरिया फिस्स से हँस खड़ा हुआ था और अपने चिर-परिचित अंदाज में कह उठा था "आते हैं एक चक्कर लगा के।"
बाद के दिनों में हुआ बस इतना कि इंद्रजीत के पड़ोसियों ने रात में इंद्रजीत के दरवाजे के खटखटाए जाने की आवाज सुनी। एक रात उसकी बेवा पत्नी को लगा कि किसी ने उसके बालों को खींच कर उसे जगाया है। जागने पर कोई नहीं था। लेकिन उसका नवजात बच्चा ठंड में उघरा हुआ था। लोगों ने यह मान लिया था कि इंद्रजीत अपने बच्चे से मिलने आता है। लोगों ने इतना भर किया कि उस गली से शाम के बाद गुजरना बंद कर दिया। यह सच था इंद्रजीत अपने बच्चे को देखने जाता था। लेकिन मौत की सातवीं रात में जब वह अपने बच्चे के सिरहाने बैठा नींद में डूबा उसे निहार रहा था तो उसे दरवाजे की सिकड़ी की हल्की-सी खड़खड़ाहट सुनाई दी। उसकी पत्नी दबे पाँव उठी और जाकर इतने आहिस्ते से दरवाजा खोला मानो कि दरवाजे की नींद ना टूटे। किसी को अपने कमरे के भीतर ले आई। इंद्रजीत उस आदमी को देखते ही गश खा गया था। उसने देखा कि वह उसका छोटा भाई संजीत था, जिसे अभी महीना भर पहले वह अपने कबाड़ के बढ़ते काम को सँभालने के लिए गाँव से यहाँ ले आया था। उसके बाद उन दोनों का लीला-कीर्तन और सत्संग देखकर उसे अपने मौत का माजरा समझते देर नहीं लगी। भारी मन से उसकी आत्मा वहाँ से निकली, उसे लग रहा था कि आत्महत्या कर ले, पर आत्मा भला क्या खाकर आत्महत्या करती। चनावाला फिर से पीपल पर लौट आया था। और तुरिया उसी मौज में उसे 'का चच्चा चना-उना देभी' के अंदाज में छेड़ता और फिस्स से हँसता हुआ मौजूद था। और हाँ, बुतरू पंडित का बाजार जम चुका था। क्योंकि तेरहीं के रोज ठाकुर के परिवार ने भिखारियों के लिए एक भोज का आयोजन किया था। उनकी पांत ठाकुर के घर के बाहर गुजरनेवाली सड़क के किनारे लगाई गई थी। वहीं बगल में उनके जूठे पत्तल नाली में फेंक दिए जा रहे थे। जिन पत्तलों पर कुत्ते रह-रह कर मँडरा रहे थे। आपस में भिड़ रहे थे। उनके भौं-भौं से परेशानी हो रही थी। उन्हें भगाने के क्रम में किसी ने कुत्तों के पिछवाड़े किरोसीन छिड़क दिया था। जिस कुत्ते को जगह पर किरोसीन लग गया था, वह तो रॉकेट हो गया था। कुत्तों की इसी अफरा-तफरी में सड़क से गुजर रही ट्रक अपना संतुलन गँवा कर उलट गई थी, जिससे दब कर दो कुष्ठरोग से ग्रसित भिखारियों की मौत हो गई थी। उनकी एल्युमिनियम की कटोरी पिचक गई थी, जिसमें पत्तल से चुरा कर रखी गई भात भी सड़क पर बिखर गई थी। पंडित का पंचक पूरा हो गया था। गाँव में उसका सिक्का चल निकला था।